तुम
खैर मैं अब तक सोच ही रहा हूँ , क्या लिखूं?
क्या वो किसी दिन हमारा यूँही मिलने का वादा लिख दूँ ,
या तुम्हारा आसमान छूने का इरादा लिख दूँ।
वह दिसंबर की सर्द रातों के बारे में,
या हमारे बीच हुई अनगिनत बातों के बारे में लिख दूँ ?
सोच रहा हूँ तुम्हारा यूँ अजनबी से खास बनना लिख दूँ ,
या फिर जो बातें तुमसे साझा की है, वो सारी बातें लिख दूँ ?
सोच रहा हूँ तुम्हारे सारे राज़ लिख दूँ,
तुम्हारी इस नयी कहानी का आगाज़ लिख दूँ ?
सोचता हूँ कुछ तुम्हारी खूबसूरती पर लिख देता हूँ ,
फिर कही तुम इतराने न लग जाओ यही सोच कर अपनी कलम रोक लेता हूँ।
ये कविता अधूरी है,
अधूरी हो तुम और तुम्हारे सारे वादे।।
-अरुणाभ मिश्रा
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