Thursday, 15 October 2020

 तुम्हे पता है , वह आज भी मेरे सपनो में आते हैं ,

परियों की दुनिया की सारी दास्तान सुनाते  हैं,

मुझे बताते हैं की जो काम यहाँ अधूरा छोड़ गए थे, उसे वहाँ मुकम्मल करते  हैं ,

बताते हैं , कि मुझे भूले नहीं हैं , मेरी यादों को याद करके मुसलसल रोते हैं।  


पता हैं , वह चले गए,

चले गए कहीं दूर , कि वहाँ सिर्फ मेरी फ़रियाद जा सकती हैं , 

और बदले में सिर्फ उनकी याद आ सकती हैं।  


काश, महज़ सिर्फ काश से ही आस है ,

अब देह नहीं , सिर्फ बातें और मखमली एहसास है।  

एहसास है बातों का , जज़बातों का ,

एहसास है तो सिर्फ उन नरम और गर्म हाथों का। 


सुना था , धन से गरीब और वस्त्र से फ़कीर थे ,

पर आत्मसम्मान और आशीर्वाद से अमीर थे।


सवाल ये है की अब यह क्यों?

कौन देखेगा , कौन सुनेगा , 

क्या कोई डाकिया ऐसा भी होगा ,

जो चिट्ठियां वहां पहुँचाता होगा। 


देखा था ,

मैंने भी देखा था बहुत ही हठी मिज़ाज़ था,

होगा भी क्यों ना , नाम जो "विश्वनाथ" था।  


मुझे बस एक ही मलाल है ,

ज़हन में महज़ एक ही सवाल है ,

की जवानी या आगाज़ में इतनी क्रांति थी ,

तो बुढ़ापे में या अंत में क्यों इतनी शांति थी। 


                                                               - अरुणाभ मिश्रा (कन्हैया)

शंख से कन्हैया लिखने का सिर्फ इस कविता में एक कारण है। 

( इस कविता को नाम देने में हाथ काँप रहा है , अगर कोई पढ़े तो इस बेनाम रचना को नाम ज़रूर देना या इसे बेनाम ही रहने देना )