Thursday, 31 October 2019

बढ़ता चल

संघर्ष  का मैदान है ,
तुझे फांदना तूफ़ान है।
अभी जो मौत आ गयी ,
तू मौत को विराम दे ,
परेशानियां हज़ार हैं,
चलने का तू कष्ट कर ,
एक-एक करके तू उन सभी को नष्ट कर।

इस पथ पर जो दर गया ,
वह डरपोक नाकारा है ,
तू आगे बढ़ता चल ,
जो जीता उसे शूरवीर पुकारा है।
संघर्ष का मैदान है ,
तुझे फांदना तूफ़ान है।

अगर तू हारता है तो रुकना ,
वह सताते है तो झुकना मत ,
तुझे जलना पड़ेगा अब ,आगे बढ़ाना पड़ेगा अब ,
उसी का भला है जो सूर्या सा जला है ,
तुझमे भी तो यह कला है ,
किसका इंतज़ार है जब तू अकेला ही चला है।
संघर्ष का मैदान है ,
तुझे फांदना  तूफ़ान है।

तू तूफ़ान से डरना मत ,
सर पर कफ़न बांध कर तू खुदा को लिखदे खत ,
क्यूंकि ''शंख'' तुझे अकेले ही बजना है ,
इस कामियाबी के पथ पर आगे बढ़ना है ।          
                                                          -मिSHRA
                                                           -अरुणाभ मिश्रा (शंख)

Wednesday, 30 October 2019

टोपी

अरे ! उसे क्यों मारा सिर्फ टोपी ही तो पहनी है ,
कैसी चली यह हवा है, जहाँ टोपी पहनना भी गुनाह है ,
उनकी गाड़ी में तो गाय भी नहीं थी ,
फिर भी मार दिया और देशद्रोही करार दिया ।

मारने वाले कौन थे? पुलिस थी ,
या खुद न्यायाधीश आए थे ,
भीड़ थी या ऊपर से खुद यमराज आए थे ,
अरे ! उसे क्यों मारा सिर्फ टोपी ही तो पहनी है  ।

टोपी पहनना गुनाह था क्या ?
उन्हें भी बताया था क्या ?
अगर बताते तो वह टोपी पहनते क्या ?
अगर टोपी नहीं होती तो वह जल्लाद उन्हें काटते क्या ?

यह सवाल है या टोपी पर उठा बवाल है ।
कैसे यह नयी छवि बन गयी ,
इंसानो द्वारा ही इंसानियत कुचली गयी ।

याद रखना ,
अब की बार जब टोपी पहनो तो , दो चार बात ही सहनी है ,
अरे ! उसे क्यों मारा सिर्फ टोपी ही तो पहनी है ।
                                                    -मिSHRA
                                                    -अरुणाभ मिश्रा (शंख)

Sunday, 27 October 2019

इस बार भी घर नहीं जा पाए वह

तुम्हे पता है इस बार भी घर नहीं जा पाए वह,
उनके घर पर उनके छोटे छोटे बच्चे इंतज़ार कर रहे थे उनका ,
इंतज़ार कर रहे थे की पापा घर आएँगे तो  पटाखे खरीदने जाएंगे ,
बम खरीदेंगे , फुलझड़िया और पता नहीं क्या क्या ,
पर उन्हें कहा पता था की उनके पापा किसी और के साथ सरहद पर दिवाली मना रहे है ,
इस बार भी घर नहीं जा पाए वह।

उन बूढ़े कांपते हाथों ने इस बार भी बेसन के लड्डू  बनाये थे पर ,
पर खाने वाला तो किसी और को पीतल तौल रहा था ,
उस माँ की आँखों में आसूं थे उम्मीद थी ,
पर माँ जान चुकी थी की अब उसकी दो दो माएं हैं और वह किसी के साथ नाइंसाफी नहीं करेगा ,
कल तक जो जिम्मेदारियों से भागता था आज उसके कन्धों में पूरे देश की जिम्मेदारी है ,
तुम्हे पता है इस बार भी घर नहीं जा पाए वह ।

उस घर के लिए दिवाली सिर्फ त्यौहार नहीं था ,
एक जरिया था जिसके चलते घर में फिर से खुशहाली आती थी ,
सीमा पर तैनात १ बेटा  और वह  सॉफ्टवेयर इंजीनियर बेटा महीनो में कभी घर आया करते थे ,
हाँ वह माँ आज भी याद करके अपने आंसू पोछ लिया करती है कि
कहाँ वह लड़का जो पटाखों की आवाज सुनकर बक्से में छुप जाया करता था ,
आज वही इतने बड़े बड़े गोले बारूदों का साथी बन जाएगा ,
तुम्हे पता है न इस बार भी नहीं जा पाए वह ,

अब तक तो समझ ही गए होगे किसकी बात कर रहा हूँ ।
इस बार जब दीपक जलाओ ना तो १ दीपक उन शहीदों को नमन करते हुए और ,
और १ उस बेटे के नाम जरूर जलाना ॥
                                                   -मिSHRA
                                                  - अरुणाभ मिश्रा (शंख)           

Thursday, 10 October 2019

मैं कौन हूँ

मैं जिंदगी की हार हूँ , या सत्य का प्रहार हूँ
मैं जानता हूँ सब यहाँ , ले चलो तुम मुझे वहाँ
या तो मैं सवाल हूँ , या उसपर उठा बवाल हूँ
मैं फैज़ की कलम हूँ ,या देश का कलाम हूँ
मैं बहाव हूँ रक्त का , या जो उड़ गया वह वक्त हूँ
मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ ?
मैं काली का श्रृंगार हूँ , या ईद का त्यौहार हूँ
मैं राम सा हूँ तेज , या लंकापति का ज्ञान हूँ
या तो मैं महान हूँ ,या खुद में ब्रह्माण्ड हूँ
मैं कोई गहरा दर्द हूँ ,या अधमरा सा मर्द हूँ
मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ ?
मै गीता  का सार हूँ , या कोई बुरा विचार हूँ
मैं कोई सुन्दर चित्र हूँ, या किसी का मित्र हूँ
मैं कोई अहंकार नहीं , या बुरा व्यव्हार नहीं
न राम का मंदिर हूँ मैं , और बाबरी मस्जिद नहीं
मैं ,मैं तो बस इंसान हूँ , मैं  तो बस इंसान हूँ
                                              ~ मिSHRA

                                                - अरुणाभ मिश्रा