Monday, 13 January 2020

तुम नायाब हो

तुम नायाब हो
मैं शायर था , किसी की मेहफिलोमे कायर था
उन नसीहतों से परे , घर की वसीहतो से बड़े मेरे ख्वाब थे ।

उन अपनों की तरह मिलना ,गैरो की तरह बिछड़ना भी कला है ,
तुम्हारा यूँ गैरों के साथ गुजरने पर ये "शंख" भी सूर्य सा जला है ।

क्या मिलना जायज़ है या छोड़ दोगी,
जो ख्वाब हमने साथ में बुने थे उन सभी को तोड़ दोगी ।
क्या फिर मिल पाएंगे , कुछ कह पाएंगे ?
तुमको तो घमंड था न मेरे होने का ,
फिर अब क्या ? अब गम नहीं है मुझे खोने का ।

तुम्हे क्या लगता है, सब छूट जायेगा क्या ,
यहाँ से जाने के बाद यह सब टूट जायेगा क्या ?


यूँ डरते डरते मिलना ,
मुलाक़ात के बाद कमल की तरह खिलना ।
सब बदल जायेगा क्या ?

तुम मेरी भेजी हुई कवितायेँ उसको भी भेजती हो क्या ?
उसको भी अपने डर बताती हो क्या ?
 वो भी मेरी ही तरह तुम्हे समझाता है क्या ,
जब तुम रोती हो तो वो तुम्हे हसाता है क्या ?

तूम नायाब हो उसके साथ कामयाब हो ,
मैं भी हल हूँ अकेला ही सफल हूँ॥
                                     -अरुणाभ मिश्रा (शंख)
                                     -मिSHRA