Sunday, 17 September 2017

हिन्दी हमारे सपनों की

                                              हिन्दी हमारे सपनों की                                                                                                                                                
                                                                                      -अरुणाभ मिश्रा
बहुत सरल है ये लिखने में ,
बोल चाल में बड़ी सुरीली ।
और सुनने में यह रसगुल्ला ,
कानों को कर देती गीली ।।
हिन्दी बोले खेल खेल में ,
और लिखने लिखे हिन्दी ।
देश है गूंगा बिन हिन्दी के ,
सबसे पहले सीखे हिन्दी ।।
शहर के हर चौराहे पर हो,
गाँवों के कच्चे मकान में ।
रिक्शे वाला भैया बोले ,
हिन्दी गूँजे वायुयान में ॥
चौपालों पर धूम मचाती ,
और संसद में गूँजती हिन्दी ।
गारु ,अन्ना, दादा, ताऊ और ,
कांछा को सूझती हिन्दी ॥

सब्जी वाला भोला चाचा,
हिन्दी में ही बेंचे भिंडी ।
दूध बेचता गिरधारी भी ,
बड़ी सुरीली बोले हिन्दी ॥
प्रेमी और प्रेमिका बोले ,
प्यार की परिभाषा हिन्दी।
आशीर्वाद पिता का हिन्दी,
और भाई की आशा हिन्दी॥
बहन की राखी में हिन्दी ,
माता की लोरी में हिन्दी ।
गाँवों की अल्हड़ सी हिन्दी ,
शहरो की गोरी में हिन्दी ॥
तुलसी की रामायण हिन्दी ,
गीता में कल्याणी हिन्दी ।
मंदिर , मस्जिद गिरजे , द्वारे ,
हर मज़हब की वाणी हिन्दी ॥
सीमा के प्रहरी के मुख से ,
निकले खूब गरजती हिन्दी ।
इसरो के वैज्ञानिक बोले ,
और फिल्मों में लरजती हिन्दी ॥
जनमानस की वाणी है यह ,
भारत के माथे की बिंदी ।
झिलमिल-झिलमिल रहे दमकती,
मेरी प्यारी भाषा हिन्दी॥
                                             -अरुणाभ मिश्रा

    

माँ नहीं अम्मा थी वह मेरी

-  अरुणाभ मिश्रा
माँ नहीं अम्मा थी वह मेरी ,
सितारों सा सजा कर रखती थी मुझे ,
प्यार और दुलार था बातों में उनकी,
कहानी सुना सुनाकर सुलाती थी मुझे,
क्योकि माँ नहीं अम्मा थी वह मेरी ।

अचानक बजी घंटी फोन की,
कोई कुछ न बोला मेरी माता भी मौन थी,
खबर थी की, नहीं रही अब वह,
यह बात सुनकर हाथ से फोन छूटा,
मुसीबत का पहाड़ था मुझपर टूटा,
बोले जल्दी से जल्दी घर आ जाओ,
इनकी आस्तियों को गंगा मे बहा जाओ,
सभी के अंदर भरा हुआ था गम ,
सबकी आंखे भी थी नम।



अगली गाड़ी पकड़कर जैसे तैसे पहुंचा गाँव,
खड़े खड़े रेल मे दर्द होने लगे थे पाँव,
हाल बड़ा ही ख़राब था घर का ,
दर्द जा ही नहीं रहा था सिर का ,
आँखों मे पानी लिए घर के अंदर पहुँचा,
देखा आंगन में रखी एक लाश थी ,
वह दूर नहीं अभी भी मेरे दिल के पास थी ,
घर मे पंडित जी आए बोले चलो सब घाट में ,
उस दिन पहली बार दिया था किसी को कंधा ,
पता नहीं क्यों गम में मै होने लगा था अंधा,
वो “राम नाम सत्य है’’ के नारे कानो में चुभने से लगे थे ।

थोड़ी देर में पहुँचे हम घाट में, लेटी थी वह बड़े ठाट में,
संभालना पड़ा मुझे मेरे पिता को ,
थोड़ी देर में आग लगने वाली थी उनकी चिता को,
पूजा के बाद दादा जी ने लगाई चिता मे आग,
देखा न गया मुझसे यह सब गया वहाँ से मै भाग।
प्यार करता था मै उनसे क्योंकि माँ नहीं अम्मा थी वोह मेरी।

दादी नहीं दोस्त की तरह रखता मै उन्हे ,
साथ में बैठकर देखे गए क्रिकेट मैच , 
हमेशा याद दिलाते रहेंगे उनकी,
अबकी बार दे दिया उन्होने मुझे धोका ,
हर बार चली आती थी अस्पताल से अपने घर,
फिर पता नहीं क्यों रास्ता भटक कर चली गई भगवान के दर,
जब भी छुट्टी मै जाता था घर ,
मुसकराकर करती थी स्वागत सभी का ,
और जाते समय आसुओं से करती थी विदा सभी को,
एसे बड़े दिल के व्यक्ति मिलते है बहुत कम ,
बड़ा आदमी बनने का देती थी आशीर्वाद सभी को,
जान से भी प्यारी थी मुझे पर अब नहीं रही ,

माँ नहीं अम्मा थी वह मेरी।
माँ नहीं अम्मा थी वह मेरी।
-   अरुणाभ मिश्रा